रोया करेंगे आप भी
अटका कहीं जो आपका दिल भी मेरी तरह
ना ताब हिज्र में है ना आराम वस्ल में
कमबख्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह
गर चुप रहे तो ग़म-ए-हिज्राँ से छूट जाएँ
कहते तो हैं वो भले की लेकिन बुरी तरह
ना जाए वां बने है ना बिन जाए चैन है
क्या कीजिये हमें तो है मुश्किल सभी तरह
लगती है गालियाँ भी तेरी मुझे क्या भली
कुर्बान तेरे, फिर मुझे कह ले इसी तरह
हूँ जां-ए-बलब बुतां-ए-सितमगर के हाथ से
क्या सब जहां में जीते हैं 'मोमिन' इसी तरह
----- मोमिन खान मोमिन
नज़्म उलझी हुई है सीने में
नज़्म उलझी हुई है सीने मेंमिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते फिरते हैं तितलियों कि तरह
लफ्ज़ कागज़ पे बैठे ही नहीं
कब से बैठा हूँ मैं जानम
सादे कागज़ पे लिख के नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इस से बेहतर भी नज़्म क्या होगी
----- गुलज़ार
मैं चाहता भी यही था वो बेवफा निकले
उसे समझने का कोई तो सिलसिला निकले
किताब-ए-मंजिल का औराक उलट के देख ज़रा
न जाने कौन सा सफ़ाह मुडा हुआ निकले
जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है
उसी के बारे में सोचो तो फासला निकले
----- वसीम बरेलवी
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त कि शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते
जिसकी आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते
शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालो के लिए दिल नहीं थोड़ा करते
लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो
ऐसी दरिया का कभी रुख नहीं मोड़ा करते
वक़्त कि शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते
------ गुलज़ार
इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त क़दम रस्ते
कुछ तेज क़दम राहें
पत्थर कि हवेली को
शीशे के घरौंदों में
तिनकों के नशेमन तक
इस मोड़ से जाते हैं
आंधी कि तरह उड़ कर
इक राह गुज़रती है
शर्माती हुई कोई
क़दमों से उतरती है
इन रेशमी राहों में
इक राह तो वह होगी
तुम तक जो पहुँचती है
इस मोड़ से जाती है
इक दूर से आती है
पास आ के पलटती है
इक राह अकेली सी
रूकती है न चलती है
ये सोच के बैठी हूँ
इक राह तो वह होगी
तुम तक जो पहुँचती है
इस मोड़ से जाती है
---- गुलज़ार
बहुत मिला न मिला जिंदगी से
मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है
हम एक उम्र से वाकिफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबां सितम क्या है
करे न जग में अलाव तो शेर किस मक़सद
करे न शहर में जल-थल तो चश्म-ए-नम क्या
अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना
ना जाने आज कि फेहरिश्त में रक़म क्या है
सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो
बहुत सही ग़म-ए-गेत्ती शराब कम क्या है
लिहाज़ में कोई कुह दूर साथ चलता है
वगरना दहर में अब खिज्र का भरम क्या है
---- फैज़ अहमद फैज़
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ,
ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये खजाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिलें ,
तू खुदा है न मेरा इश्क फरिश्तों जैसा
दोनों इंसान हैं तो क्यों इतने हिज़ाबों में मिलें ,
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें ,
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें ,
आज हम दार पर खींचे गए जिन बातों पर
क्या अजब कल वो जमाने को नसीबों में मिले ,
अब न वो मैं हूँ न तू है ना वो माज़ी है 'फ़राज़'क्या अजब कल वो जमाने को नसीबों में मिले ,
जैसे दो शक्श तमन्ना के सराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
मिट गया जब मिटाने वाला
मिट गया जब मिटाने वाला फिर सलाम आया तो क्या आया
दिल की बरबादी के बाद उन का पयाम आया तो क्या आया
छूट गईं नबज़ें उम्मीदें देने वाली हैं जवाब
अब उधर से नामाबर लेके पयाम आया तो क्या आया
आज ही मिलना था ए दिल हसरत-ए-दिलदार में
तू मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या आया
काश अपनी ज़िन्दगी में हम ये मंज़र देखते
अब सर-ए-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या आया
सांस उखड़ी आस टूटी छा गया जब रंग-ए-यास
नामबार लाया तो क्या ख़त मेरे नाम आया तो क्या
मिल गया वो ख़ाक में जिस दिल में था अरमान-ए-दीद
अब कोई खुर्शीद-वश बाला-इ-बाम आया तो क्या आया
----- दिल शाहजहाँपुरी
दिल की बरबादी के बाद उन का पयाम आया तो क्या आया
छूट गईं नबज़ें उम्मीदें देने वाली हैं जवाब
अब उधर से नामाबर लेके पयाम आया तो क्या आया
आज ही मिलना था ए दिल हसरत-ए-दिलदार में
तू मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या आया
काश अपनी ज़िन्दगी में हम ये मंज़र देखते
अब सर-ए-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या आया
सांस उखड़ी आस टूटी छा गया जब रंग-ए-यास
नामबार लाया तो क्या ख़त मेरे नाम आया तो क्या
मिल गया वो ख़ाक में जिस दिल में था अरमान-ए-दीद
अब कोई खुर्शीद-वश बाला-इ-बाम आया तो क्या आया
----- दिल शाहजहाँपुरी
मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ
मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर
मुझे यहाँ देखकर मेरी रूह डर गई है
सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैं अपने चेहरों की, हसरतों ने
कि शौक़ पहचानता ही नहीं
मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं
मुझे यहाँ देखकर मेरी रूह डर गई है
सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैं अपने चेहरों की, हसरतों ने
कि शौक़ पहचानता ही नहीं
मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं
मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आ कर
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आ कर
----- गुलज़ार
एक पुराना मौसम लौटा
एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हो तन्हाई भी
यादों कि बौछारों से जब पलकें भीगने लगती है
कितनी सौंधी लगती है तब मांजी की रुसवाई भी
दो दो शक्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में
मेरे साथ चला आया है आपका इक सौदाई भी
ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी है
उनकी बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी
---- गुलज़ार
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हो तन्हाई भी
यादों कि बौछारों से जब पलकें भीगने लगती है
कितनी सौंधी लगती है तब मांजी की रुसवाई भी
दो दो शक्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में
मेरे साथ चला आया है आपका इक सौदाई भी
ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी है
उनकी बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी
---- गुलज़ार
जिंदगी यूँ हुई बसर तनहा
जिंदगी यूँ हुई बसर तनहा
काफिला साथ और सफ़र तनहा
अपने साए से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस क़दर तनहा
रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तनहा
दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तनहा
हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फ़िर न जाने गए किधर तनहा
---- गुलज़ार
काफिला साथ और सफ़र तनहा
अपने साए से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस क़दर तनहा
रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तनहा
दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तनहा
हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फ़िर न जाने गए किधर तनहा
---- गुलज़ार
दिल की बात लबों तक लाकर अब तक दुख सहते हैं
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं
बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदली
लेकिन इन प्यासी आँखों में अब तक आसू बहते हैं
एक ह्यूम आवारा केहेना कोई बड़ा इल्ज़ाम नही
दुनिया वाले दिल वालों को और बहूत कुछ कहते हैं
जिसकी खतीर शहर भी चोरदा जिसके लिए बदनाम हुए
आज वोही हुंसे बेगाने बेगाने से रहते हैं
वो जो अभी रहगीज़ार से चक-ए-ग़रेबान गुज़रा था
उस आवारा दीवाने को "जालीब जालीब कहते हैं
___________________हबीब ज़ालीब
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं
बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदली
लेकिन इन प्यासी आँखों में अब तक आसू बहते हैं
एक ह्यूम आवारा केहेना कोई बड़ा इल्ज़ाम नही
दुनिया वाले दिल वालों को और बहूत कुछ कहते हैं
जिसकी खतीर शहर भी चोरदा जिसके लिए बदनाम हुए
आज वोही हुंसे बेगाने बेगाने से रहते हैं
वो जो अभी रहगीज़ार से चक-ए-ग़रेबान गुज़रा था
उस आवारा दीवाने को "जालीब जालीब कहते हैं
___________________हबीब ज़ालीब
तेरी बात ही सुनाने आये, दोस्त भी दिल ही दुखाने आये
फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं तेरे आने का ज़माने आये
शायद मुझे निकाल के पछता रहे हो आप
महफ़िल में इस ख़याल से फिल आ गया हूँ मैं
महफ़िल में बार बार किसी पर नज़र गई
हमने बचाई लाख मगर फिर उधर गई
उनकी नज़र में कोई तो जादू ज़ुरूर है
जिस पर पड़ी, उसी के जिगर तक उतर गई
उस बेवफा की आँख से आंसू झलक पड़े
हसरत भारी निगाह बड़ा काम कर गई
उनके जमाल-इ-रुख पे उन्ही का जमाल था
वोह चल दिए तो रौनक-इ-शाम-ओ-सहर गई
उनको खबर करो के है बिस्मिल करीब-इ-मर्ग
वोह आयेंगे ज़ुरूर जो उन तक खबर गई
_________________________
शायर : आगा बिसमिल
मौसीकार और फनकार : गुलाम अली
फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं तेरे आने का ज़माने आये
शायद मुझे निकाल के पछता रहे हो आप
महफ़िल में इस ख़याल से फिल आ गया हूँ मैं
महफ़िल में बार बार किसी पर नज़र गई
हमने बचाई लाख मगर फिर उधर गई
उनकी नज़र में कोई तो जादू ज़ुरूर है
जिस पर पड़ी, उसी के जिगर तक उतर गई
उस बेवफा की आँख से आंसू झलक पड़े
हसरत भारी निगाह बड़ा काम कर गई
उनके जमाल-इ-रुख पे उन्ही का जमाल था
वोह चल दिए तो रौनक-इ-शाम-ओ-सहर गई
उनको खबर करो के है बिस्मिल करीब-इ-मर्ग
वोह आयेंगे ज़ुरूर जो उन तक खबर गई
_________________________
शायर : आगा बिसमिल
मौसीकार और फनकार : गुलाम अली
अश्क जो तारीकी ने छुपायेन मेरे थे
कैफ़-ए-बहाराँ महार-ए-निगारान लुत्फ़-ए-जुनून
मौसम-ए-गुल के महके साए मेरे थे
मेरे थे वो काब जो टुउने च्चीं लिए
गीत जो होंठों पर मुरझाए मेरे थे
आँचल आँचल गेसूउ गेसूउ चमन चमन
सारी कूशब्ुऊ मेरी साए मेरे थे
साहिल साहिल लहरें जिसको धुँधती हैं
माज़ी के वो महके साए मेरे थे
_____________
मिराज-ए-ग़ज़ल
मौसिकार : गुलाम अली
फनकार : आशा भोसले
धुवा बनाके फ़िज़ाओ में उड़ा दिया मुझको
मैं जल रहा था किसी ने ब्झहा दिया मुझको
खड़ा हून आज भी रोटी के चार हरफ़ लिए
सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझको
सफेद संग की चादर लपेट कर मुझपर
फसीने शहर से किसी ने सज़ा दिया मुझको
मैं एक ज़ररा बुलंदी को छूने निकला था
हवा ने थम के ज़मीन पर गिरा दिया मुझको
_______________
मौसीकार : जगजीत सिंग
मैं जल रहा था किसी ने ब्झहा दिया मुझको
खड़ा हून आज भी रोटी के चार हरफ़ लिए
सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझको
सफेद संग की चादर लपेट कर मुझपर
फसीने शहर से किसी ने सज़ा दिया मुझको
मैं एक ज़ररा बुलंदी को छूने निकला था
हवा ने थम के ज़मीन पर गिरा दिया मुझको
_______________
मौसीकार : जगजीत सिंग
फनकार : लता मंगेशकर
बिन बारिष बरसात ना होगी
रात गयी तो रात ना होगी
राज़-इ-मोहब्बत तुम मत पूछो
मुझसे तो ये बात ना होगी
किस से दिल बहलाओगे तुम
जिस दम मेरी ज़ात ना होगी
अश्क भी अब ना पैद हुए हैं
शायम अब बरसात ना होगी
यूं देखेंगे आरिफ उसको
बीच में अपनी ज़ात ना होगी
______________
शायर : खालिद महमूद आरिफ़
मौसीकार/फनकार : गुलाम अली
रात गयी तो रात ना होगी
राज़-इ-मोहब्बत तुम मत पूछो
मुझसे तो ये बात ना होगी
किस से दिल बहलाओगे तुम
जिस दम मेरी ज़ात ना होगी
अश्क भी अब ना पैद हुए हैं
शायम अब बरसात ना होगी
यूं देखेंगे आरिफ उसको
बीच में अपनी ज़ात ना होगी
______________
शायर : खालिद महमूद आरिफ़
मौसीकार/फनकार : गुलाम अली