मैं तो मुफलिस था किसी मन की दुआओं की तरह..
उस शक्श को तो बिछड़ने का सलीका नहीं फ़राज़!
जाते हुए खुद को मेरे पास छोड़ गया
अब उसे रोज सोचो तो बदन टूटता है फ़राज़..
उम्र गुजरी है उसकी याद नशा करते करते
बे -जान तो मै अब भी नहीं फराज..
मगर जिसे जान कहते थे वो छोड़ गया..
जब्त ऐ गम कोई आसान काम नहीं फराज.
आग होते है वो आंसू , जो पिए जाते हैं.
क्यों उलझता रहता है तू लोगो से फराज.
ये जरूरी तो नहीं वो चेहरा सभी को प्यारा लगे.
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते
शिकवा-ए-जुल्मते-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते
कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते
जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते-गाते जाते
उसकी वो जाने, उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ से तो निभाते जाते
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ
हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ
अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ
बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
सुना है लोग उसे आँख भरके देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आपको बर्बाद करके देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चशमे नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेर-व-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
यह बात है तो चलो बात करके देखते हैं
सितारे बामे फ़लक से उतरकर देखते हैं
सुना है दिन में उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात में जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है हश्न है उसकी गिज़ाल सी आँखें
सुना है उसको हिरण दश्त भरके देखते हैं
सुना है रात से बढ़कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं
सुना है उसकी सियाह चस्मगी क़यामत है
सो उसका सुरमा फ़रोश आह भरके देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इल्ज़ाम धरके देखते हैं
सुना है आईना तिमसाल है ज़बीं उसकी
जो सादा दिल है उसे बन संवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाईल है उसकी गर्दन में
सुना है चश्मे तसव्वुर से दश्ते इमकां में
पलंग ज़ाविये उसकी कमर के देखते हैं
सुना है उसके बदनकी तराश ऐसी है
वह सर-व-कद है मगर बे गुले मुराद नहीं
कि इसे शहर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहवाने तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
रुकें तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो ज़माने उसे ठहर के देखते हैं
किसे नसीब कि बै पैरहन उसे देखे
कभी कभी दर-व-दीवार घर के देखते हैं
कहानियां ही सही सब मुबालगे ही सही
अगर वह ख्वाब है ताबीर करके देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें की कूच कर जाएं
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र करके देखते हैं
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब लहजा बदल के देखते हैं
जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं
रहे वफ़ा में हरीफ़े खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकाल के देखते हैं
तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं
ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे, मुझे जलके देखते हैं
यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं
न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं
यह कौन है सरे साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं
अभी तक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं
बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ए यार चलके देखते हैं
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjvHE2yZwW2T9TysNoeT2ezQRh1YmKvhRxW5yQ1VvrI7gVz4OyIJ7EgzXDmJlRvVaTaChgcZh0NozWmbvWcPi4ouoR9SsJnuZDQItGWn5UlX9P8BFScXiXg36syBnTWofiyiwuvP-YaxGw/s1600/tumblr_lpzheu20in1qfm8duo1_500.gif)
तू बहुत देर से मिला है मुझे
हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे
लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे
दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे
कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
दिल को अब यूँ तेरी हर एक अदा लगती है
जिस तरह नशे की हालत में हवा लगती है
रतजगे खवाब परेशाँ से कहीं बेहतर हैं
लरज़ उठता हूँ अगर आँख ज़रा लगती है
ऐ, रगे-जाँ के मकीं तू भी कभी गौर से सुन,
दिल की धडकन तेरे कदमों की सदा लगती है
गो दुखी दिल को हमने बचाया फिर भी
जिस जगह जखम हो वाँ चोट लगती है
शाखे-उममीद पे खिलते हैं तलब के गुनचे
या किसी शोख के हाथों में हिना लगती है
तेरा कहना कि हमें रौनके महफिल में "फराज़"
गो तसलली है मगर बात खुदा लगती है
ये क्या के सब से बयाँ दिल की हालतें करनी
"फ़राज़" तुझको न आईं मुहब्बतें करनी
ये क़ुर्ब क्या है के तू सामने है और हमें
शुमार अभी से जुदाई की स'अतें करनी
कोई ख़ुदा हो के पत्थर जिसे भी हम चाहें
तमाम उम्र उसी की इबादतें करनी
सब अपने अपनी क़रीने से मुंतज़िर उसके
किसी को शुक्र किसी को शिकायतें करनी
हम अपने दिल से हैं मजबूर और लोगों को
ज़रा सी बात पे बरपा क़यामतें करनी
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
संगदिल है वो तो क्यूं इसका गिला मैंने किया / फ़राज़
संगदिल है वो तो क्यूं इसका गिला मैंने किया
जब कि खुद पत्थर को बुत, बुत को खुदा मैंने किया
कैसे नामानूस लफ़्ज़ों कि कहानी था वो शख्स
उसको कितनी मुश्किलों से तर्जुमा मैंने किया
वो मेरी पहली मोहब्बत, वो मेरी पहली शिकस्त
फिर तो पैमाने-वफ़ा सौ मर्तबा मैंने किया
हो सजावारे-सजा क्यों जब मुकद्दर में मेरे
जो भी उस जाने-जहाँ ने लिख दिया, मैंने किया
वो ठहरता क्या कि गुजरा तक नहीं जिसके लिया
घर तो घर, हर रास्ता, आरास्ता मैंने किया
मुझपे अपना जुर्म साबित हो न हो लेकिन मैंने
लोग कहते हैं कि उसको बेवफ़ा मैंने किया
<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<
तुझे उदास किया खुद भी सोगवार हुए
तुझे उदास किया खुद भी सोगवार हुए
हम आप अपनी मोहब्बत से शर्मसार हुए
बला की रौ थी नदीमाने-आबला-पा को
पलट के देखना चाहा कि खुद गुबार हुए
गिला उसी का किया जिससे तुझपे हर्फ़ आया
वरना यूँ तो सितम हम पे बेशुमार हुए
ये इन्तकाम भी लेना था ज़िन्दगी को अभी
जो लोग दुश्मने-जाँ थे, वो गम-गुसार हुए
हजार बार किया तर्के-दोस्ती का ख्याल
मगर फ़राज़ पशेमाँ हर एक बार हुए
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और
उस कू-ए-मलामत में गुजरते कोई दिन और
रातों के तेरी यादों के खुर्शीद उभरते
आँखों में सितारे से उभरते कोई दिन और
हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखा
ए काश तेरे बाद गुजरते कोई दिन और
राहत थी बहुत रंज में हम गमतलबों को
तुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और
गो तर्के-तअल्लुक था मगर जाँ पे बनी थी
मरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और
उस शहरे-तमन्ना से फ़राज़ आये ही क्यों थे
ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये
तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये
फिर जो भी दर मिला है उसी दर के हो गये
फिर यूँ हुआ के गैर को दिल से लगा लिया
अंदर वो नफरतें थीं के बाहर के हो गये
क्या लोग थे के जान से बढ़ कर अजीज थे
अब दिल से मेह नाम भी अक्सर के हो गये
ऐ याद-ए-यार तुझ से करें क्या शिकायतें
ऐ दर्द-ए-हिज्र हम भी तो पत्थर के हो गये
समझा रहे थे मुझ को सभी नसेहान-ए-शहर
फिर रफ्ता रफ्ता ख़ुद उसी काफिर के हो गये
अब के ना इंतेज़ार करें चारगर का हम
अब के गये तो कू-ए-सितमगर के हो गये
रोते हो एक जजीरा-ए-जाँ को "फ़राज़" तुम
देखो तो कितने शहर समंदर के हो गये
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>