Pyaar itnaa naa kar..

Pyar Itna Na Kar - Shreya Ghoshal Powered by SongsPK.co

Sunday, 14 April 2013

मेरी पसंदीदा शायर ..... मजाज़ लखनवी की शायरी


ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई
हाँ लुत्फ़ जब है पाके भी ढूँढा करे कोई

तुम ने तो हुक्म-ए-तर्क-ए-तमन्ना सुना दिया,
किस दिल से आह तर्क-ए-तमन्ना  करे कोई

दुनिया लरज़  गई दिल-ए-हिरमाँनसीब  की,
इस तरह साज़-ए-ऐश न छेड़ा करे कोई

मुझ को ये आरज़ू वो उठायें नक़ाब ख़ुद,
उन को ये इन्तज़ार तक़ाज़ा करे कोई

रंगीनी-ए-नक़ाब में ग़ुम हो गई नज़र,
क्या बे-हिजाबियों का तक़ाज़ा करे कोई

या तो किसी को जुर्रत-ए-दीदार ही न हो,
या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई

होती है इस में हुस्न की तौहीन  ऐ 'मज़ाज़',
इतना न अहल-ए-इश्क़ को रुसवा करे कोई


नौजवान खातून से


हिजाबे फतना परवर अब उठा लेती तो अच्छा था।
खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था


तेरी नीची नजर खुद तेरी अस्मत की मुहाफज है।
तू इस नश्तर की तेजी आजमा लेती तो अच्छा था


यह तेरा जर्द रुख, यह खुश्क लब, यह वहम, यह वहशत।
तू अपने सर से यह बादल हटा लेती तो अच्छा था


दिले मजरुह को मजरुहतर करने से क्या हासिल?
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था


तेर माथे का टीका मर्द की कस्मत का तारा है।
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था


तेरे माथे पे यह आँचल बहुत ही खूब है लेकिन।
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।

***********************एतराफ़
 अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो ?
मैंने माना कि तुम इक पैकरे-रानाई हो
चमने-दहर में रूहे-चमन-आराई हो
तलअते-मेह्र हो,फिरदौस की रानाई हो
बिन्ते-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
मुझसे मिलने में अब अंदेशए-रुसवाई है
मैंने ख़ुद अपने किए की ये सज़ा पाई है

ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैंने
शोला-ज़ारों में जलाई है जवानी मैंने
शहरे-खूबां में गंवाई है जवानी मैंने
ख्वाब-गाहों में जगाई है जवानी मैंने
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र डाली है
मेरे पैमाने-मुहब्बत ने सिपर डाली है

उन दिनों मुझपे क़यामत का जुनूं तारी था
सर पे सरशरीओ-इशरत का जुनूं तारी था
माहपारों से मुहब्बत का जुनूं तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था
बिस्तरे-मख्मलो-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीनो-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी

जन्नते-शौक़ थी बेगानए- आफ़ाते-सुमूम
दर्द जब दर्द न हो, काविशे-दरमाँ मालूम
ख़ाक थे दीदए-बेबाक में गर्दूं के नुजूम
बज़्मे-परवीं थी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम
लैलिए-नाज़ बरअफ़्गंदा-नक़ाब आती थी
अपनी आंखों में लिए दावते-ख्वाब आती थी

संग को गौहरे-नायाबो-गरां जाना था
दश्ते-पुर-खार को फ़िर्दौसे-जिनां जाना था
रेग को सिलसिलए-आबे-रवां जाना था
आह ये राज़ अभी मैंने कहाँ जाना था
मेरी हर फ़तह में है एक हज़ीमत पिनहाँ
हर मसर्रत में है राज़े-ग़मो-इशरत पिनहाँ

क्या सुनोगी मेरी मजरुह जवानी की पुकार
मेरी फर्यादे-जिगर-दोज़, मेरा नालए-ज़ार
शिद्दते-करब में डूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मैं कि ख़ुद अपने मजाके-तरब-आगीं का शिकार
वो गुदाज़े-दिले-मरहूम कहाँ से लाऊं
अब मैं वो जज्बए- मौसूम कहाँ से लाऊं

मेरे साए से डरो तुम मेरी गुरबत से डरो
अपनी जुरअत की क़सम अब मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो मेरी मुहब्बत से डरो
अब मैं अल्ताफो-इनायत का सज़ावार नहीं
मैं वफ़ादार नहीं हाँ मैं वफ़ादार नहीं

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो ? 
 नन्ही पुजारन
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इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन
पतली बाहें पतली गर्दन
भोर भये मन्दिर आई है
आई नहीं है, माँ लाई है
वक़्त से पहले जाग उठी है
नींद अभी आंखों में भरी है
ठोडी तक लट आई हुई है
यूँ ही सी लहराई हुई है
आंखों में तारों की चमक है
मुखड़े पर चांदी की झलक है
कैसी सुंदर है क्या कहिये
नन्ही सी इक सीता कहिये
धूप चढ़े तारा चमका है
पत्थर पर इक फूल खिला है
चाँद का टुकडा फूल की डाली
कमसिन, सीधी, भोली भाली
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है
पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
कैसी भोली और सीधी है
मन्दिर की छत देख रही है
माँ बढ़कर चुटकी लेती है
चुपके चुपके हंस देती है
हँसना रोना उसका मज़हब
उसको पूजा से क्या मतलब
ख़ुद तो आई है मंदर में
मन उसका है गुडिया घर में  
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उसनेउसने जब कहा मुझसे गीत एक सुना दो ना
सर्द है फिजा दिल की, आग तुम लगा दो ना

क्या हसीं तेवर थे, क्या लतीफ लहजा था
आरजू थी हसरत थी हुक्म था तकाजा था

गुनगुना के मस्ती में साज़ ले लिया मैं ने
छेड़ ही दिया आख़िर नगमा-ऐ-वफ़ा मैंने

यास का धुवां उठा हर नवा-ऐ-खस्ता से
आह की सदा निकली बरबत-ऐ-शिकस्ता से जब कहा मुझसे गीत एक सुना दो ना

 

 

 

कमाल-ए-इश्क़ है दीवाना हो गया हूँ मैं 

 कमाल-ए-इश्क़ है दीवाना हो गया हूँ मैं ।
ये किस के हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं ।

तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया,
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं ।

ये मेरे इश्क़ की मजबूरियाँ म'अज़-अल्लाह,
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं ।

इस इक हिजाब पे सौ बे-हिजाबियाँ सदक़े,
जहाँ से चाहता हूँ तुम्को देखता हूँ मैं ।

बताने वाले वहीं पर बताते हैं मंज़िल,
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं ।

कभी ये ज़ोम कि तू मुझ से छुप नहीं सकता,
कभी ये वहम कि ख़ुद भी छुपा हुआ हूँ मैं ।

मुझे सुने न कोई मस्त-ए-बादा-ए-इशरत,
'मज़ाज़' टूटे हुये दिल की इक सदा हूँ मैं ।

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सीने में उन के जलवे छुपाये हुये तो हैं

 सीने में उन के जलवे छुपाये हुये तो हैं|
हम अपने दिल को तूर बनाये हुये तो हैं|
[तूर=पहाड]
तासीर-ए-जज़्ब-ए-शौक़ दिखाये हुये तो हैं,
हम तेरा हर हिजाब उठाये हुये तो हैं|
[तासीर=नतीज़ा; जज़्बा=अहसास; हिजाब=परदा]
हाँ वो क्या हुआ वो हौसला-ए-दीद अहल-ए-दिल,
देखो न वो नक़ाब उठाये हुये तो हैं|
[हौसला-ए-दीद=देखने की हिम्मत]
तेरे गुनाहाअर गुनाहगार ही सही,
तेरे करम की आस लगाये हुये तो हैं|
अल्लाह रे क़ामयाबी-ए-आवारगान-ए-इश्क़,
ख़ुद गुम हुये तो क्या उसे पाये हुये तो हैं|
ये तुझ को इख़्तियार है तासीर दे न दे,
दस्त-ए-दुआ हम आज उठाये हुये तो हैं|
[इख़्तियार=ओन्त्रोल; तासीर=नतीज़ा; दस्त-ए-दुआ=प्रार्थना में हाथ उठाना]

मिटते हुओं को देख के क्यों रो न दें 'मज़ाज़',
आख़िर किसी के हम भी मिटाये हुये तो हैं|

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ख्वाबे सहर 

मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफलाक पर,
रात ही तारी रही इंसान की अदराक पर।
अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा,
दिल में तारिकी दिमागों में अंधेरा ही रहा।
आसमानों से फरिश्ते भी उतरते ही रहे,
नेक बंदे भी खुदा का काम करते ही रहे।
इब्ने मरियम भी उठे मूसाए उमराँ भी उठे,
राम व गौतम भी उठे, फिरऔन व हामॉ भी उठे।
मस्जिदों में मौलवी खुतवे सुनाते ही रहे,
मन्दिरों में बरहमन श्लोक गाते ही रहे।
एक न एक दर पर जबींए शौक घिसटती ही रही,
आदमियत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही।
रहबरी जारी रही, पैगम्बरी जारी रही,
दीन के परदे में, जंगे जरगरी जारी रही।
अहले बातिन इल्म के सीनों को गरमाते ही रहे,
जहल के तारीक साये हाथ फैलाते ही रहे।
जहने इंसानी ने अब, औहाम के जुल्मान में,
जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में।
कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाबे सहर देखा तो है,
जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है।

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जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है 

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जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है|
मगर वो आज भी बर्हम नहीं है|

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना,
तेरी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म नहीं है|

बहुत कुछ और भी है जहाँ में,
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है|

मेरी बर्बादियों के हम्नशिनों,
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है|

अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं,
अभी तो आँख भी पुर्नम नहीं है|

'मज़ाज़' एक बादाकश तो है यक़ीनन,
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है|

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हुस्न को बे-हिजाब होना था

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हुस्न को बे-हिजाब होना था|
शौक़ को कामयाब होना था|

हिज्र में कैफ़-ए-इज़्तराब न पूछ,
ख़ून-ए-दिल भी शराब होना था|

तेरे जल्वों में घिर गया आख़िर,
ज़र्रे को आफ़ताब होना था|

कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी,
कुछ मुझे भी ख़राब होना था|

रात तारों का टूटना भी 'मज़ाज़',
बाइस-ए-इज़्तराब होना था|

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